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Wednesday 6 December 2017

जौनपुरिया मूली



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जौनपुर की जब बात हो और मूली की बात ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। खाने के मामले में जौनपुर का एक अहम योगदान रहा है चाहे वह मीठा मटन हो या फिर जौनपुर की इमरती सबका अपना एक अलग स्थान है। लेकिन जो बात बहुत कम लोगों को पता होगी वह यह है की जौनपुर की मूली जो की बहोत तेज विकसित होती है और इनका आकार भी और स्थानो के मूलियों से बड़ा होता है तथा ये बड़ी होने के साथ साथ बाकी स्थानों के मूलियों से बहुत ही ज्यादा नरम होती है। इसके पीछे यहां के पानी का वह यहां की मिट्टी का बहुत बड़ा योगदान है जौनपुर में करीब 5 बड़ी नदियां बहती हैं जिनका नाम गोमती सयी बसुही, पीली व वरुणा है। इन नदियों के कारण यहां की मिट्टी बहुत ही ज्यादा उर्वरक है यही कारण है कि जौनपुर में कई प्राचीन सभ्यताएं उदित हुई जिनमें से मदार डीह जिसका उत्खनन डॉ सचिन तिवारी, डॉ अनिल दूबे अादि ने किया तथा उत्तर भारत मे प्रथम बार बाघ का दांत मिला। जौनपुर किले के पास की पुरातात्विक स्थली जिसका उत्खनन श्री सैय्यद जमाल जी ने किया तथा यहाँ से भी कई अति प्राचीन अवशेष मिले, इनके अलावा जौनपुर में कई ऐतिहासिक व मध्यकालीन अवशेष आज भी जौनपुर की शौर्यगाथा का विवरण प्रस्तुत करते हैं। यह संभव हुआ क्युँकी यहाँ की मिट्टी अति उपजाऊ है, मूली के संदर्भ में बात करते हुए यह भी ध्यान देने योग्य है की आसपास के कुछ और जिलों में भी हमें बड़ी मूलियाँ दिखाई पड़ते हैं। यह बड़े गर्व की बात है कि आज भी जौनपुर का किसान यहां पर मूली की खेती करता है और मूली का एक विशिष्ट स्थान है यहां के तरकारियों में। 

Wednesday 1 November 2017

बकलोल कौन है ?

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यह प्रश्न कई बार दिल को कचोटता है झकझोरता है परन्तु ग्यानेन्द्रियाँ कार्य करने मे अकुशलता का प्रमाण हर पल देती रहती हैं, पांडे जी के यहाँ बनारसी खाते हुए कई बार बकलोल शब्द का प्रयोग होता था परन्तु बकलोलियत की परिभाषा ? एक दिन कचकचाते हुए अपने यहाँ के मशहूर सोखा जिन्होने कल्लू भूत को एक पल मे जम्पुर भेजदिया था से पूछ ही लिया की इ बकलोल है क्या, शोखा का पूरा ग्यान धरा का धरा रह गया और वह भी बकलोलियत को बयाँ ना कर पाया मानो मैने प्रश्न ना अपितु किसी के म्रित्यु का साधन पूँछ लिया था, बंसवारी की कश्मीरी चुड़ैल भी मेरे प्रश्न को सुनकर बदहवास हो गयी हर जगहँ चर्चा फैल गयी इस्तेहार छप गये की जो भी बकलोलियत की परिभाषा समझायेगा उसको मुहमांगा इनाम मिलेगा, अस्सी पर बैठे पंडों मे भी जंग छिड़ गयी कि अरे रामखेलान बकलोल ई बकलोल का होला ? पर कोई उत्तर ना मिला, कइयों ने तो प्रधानमंत्री के पास पत्र लिखकर ये भी सिफारिस किया की इब तो बकलोल को राष्ट्रिय शब्द सूची मे प्रथम स्थान पर रखा जाये,
पर इतना सब कर के भी कुछ जवाब ना मिला और अंतोगत्वा यह फैसला लिया गया कि बकलोल जैसा था वैसा ही रहेगा व जैसा की बकलोल बोलने मे अच्छा लगता है, मानसिक व शारीरिक तसल्ली मिलती है इसे बोलने मे तो समस्त मानव जात को बकलोलियत के सीमा रेखा मे लाना उचित है।
सार- हम सब बकलोल है कहीं ना कहीं कभी ना कभी

©® शिवम् दूबे
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